ग़ज़ल 49
2122–2122–2122
याद आता है मुझे चेहरा तुम्हारा,
मैं
जिसे कहती रही चंदा सा प्यारा।
बिन
तेरे कितना अधूरा है ये आंगन,
भूल ना
पाएगा तुझको मन हमारा ।
चार
दिन की चांदनी वह भी अधूरी,
पढ रही
थी इक अधूरा ख़त तुम्हारा।
तुम समझ लोगे मेरी मजबूरियाँ जब,
जानती
हूँ लौट आओगे दुबारा ।
अब नहीं चंदा मुझे देता दिलासा ,
जो कभी
तनहाइयों मे था सहारा।
छटपटाती यूँ नहीं, ना
डूबती मैं -
तुम जो
मेरा बन गए होते किनारा ।
देखती
हूँ टूटते तारे बिखरते ,
आसमाँ
को जब कभी मैने निहारा
चाहती
तो हूं, भला रोकूँ मैं कैसे?
आँख बेबस देखती है बस नज़ारा
पाँव
धरती पर नहीं है ‘अर्चना’ के
जब से
मैने दिल में है तुमको उतारा
Corrected 02-05-21
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