ग़ज़ल 44 : जल्दबाजी में दरख़्तों
को---
जल्दबाजी में दरख़्तों को न यूँ
तुम छाँटते
तो घनी छाया में हम तुम दर्द अपना
बाँटते
कद तुम्हारा दोस्ती के कद से ऊँचा
हो गया
वरना हम तुमको कभी उस प्यार से फिर
डाँटते
धूल में चंदा भी अब दिखता कहाँ छत
पर कभी
आसमां खाली कहाँ सपने जो अपने टाँकते
दूरियाँ बढ़ती ही जाती हैं करूँ
कोशिश कई
थक न जाऊं मैं विवादों को ही केवल
ढाँपते
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें