ग़ज़ल 024 : अपने ग़म की परत मैं ---
अपने गम की परत मैं छुपाती रही
पर तुम्हें देखकर मुस्कुराती रही
चुभ रहे थे जो काँटे मेरे पाँव में
चीख अपनी सदा मैं दबाती रही
जो भी रिश्ते न उन से निभाए गए
आज तक मैं वो रिश्ते निभाती रही
कब ज़माने को मालूम क्या गम मेरा
खुद ही सुनती रही खुद सुनाती रही
तार टूटे हुए ज़िन्दगी के मगर --
जोड़ कर साज फिर भी बजाती रही ।
जिन बहारों से कोई न उम्मीद थी
आस फिर भी उन्हीं से लगाती रही
"अर्चना" जो थी कल आज भी है वही
जाने दुनिया क्यों ऊँगली उठाती रही
डा0 अर्चना पांडेय