बुधवार, 14 अक्तूबर 2020

ग़ज़ल 019

 

ग़ज़ल 19 :

 

गज़ल 19 :परेशां हैं ज़माने से, बगावत कर नहीं सकते

 1222---1222---1222----1222

 परेशां हैं ज़माने से, बगावत कर नहीं सकते

कभी जल में मगर से तुम, अदावत कर नहीं सकते

 

अकेले सच से ही गर जीतने की चाह हम कर लें

कुटिल के सामने झूठी हिमायत कर नहीं सकते।

 

करें भरपूर कोशिश वो, दबा दें सच ये मुमकिन है

कभी वो सच की ताकत-सी सदाक़त कर नहीं सकते।

 

अकेले चल रहे हैं जो मुहब्बत का लिए परचम

क़यामत हो भले बरपा, वो नफ़रत कर नहीं सकते।

 

जहाँ पर "अर्चना" केवल बसेरा झूठ का होते

वहाँ बातिल से हम हरगिज रफ़ाक़त कर नहीं सकते।

 

सं 02-05-2021


  

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