बुधवार, 28 अक्तूबर 2020

ग़ज़ल 024

 ग़ज़ल 024 : अपने ग़म की परत मैं ---


अपने गम की परत मैं छुपाती रही

 पर तुम्हें देखकर मुस्कुराती रही

 

चुभ रहे थे जो काँटे मेरे पाँव में

चीख अपनी सदा मैं दबाती रही  


जो भी रिश्ते न उन से निभाए गए

आज तक मैं वो रिश्ते निभाती रही  


कब ज़माने को मालूम क्या गम मेरा

खुद ही सुनती रही खुद सुनाती रही 


तार टूटे हुए ज़िन्दगी के मगर --

जोड़ कर साज फिर भी बजाती रही । 


जिन बहारों से कोई न उम्मीद थी

आस फिर भी उन्हीं से लगाती रही  


"अर्चना" जो थी  कल आज भी है वही

जाने दुनिया क्यों ऊँगली उठाती रही 


डा0 अर्चना पांडेय


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