बुधवार, 14 अक्तूबर 2020

ग़ज़ल 014

 

1.     ग़ज़ल 014: हो रही शाम घर को निकल साथिया

 

हो रही शाम घर को निकल साथिया

तूने वादा किया था ना छल साथिया

 

बात पूरी नहीं हो सकी आज पर

हम मिलेंगे यहीं फिर से कल साथिया

 

अलविदा की ये बातें नहीं लग रही

इन अदाओं में है एक पहल साथिया

 

आसमा सज रहा, चांद हँसने लगा

अपने वादे से यूँ ना बदल साथिया

 

संग तेरा-मेरा हो सदा के लिए

कर मेरे इस गणित का तू हल साथिया

 

ख्वाब छोटे से थे बात बढ़ने लगी

स्वप्न के बन गए हैं महल साथिया

 

बे-इजाजत मुझे रोक लेता है क्यूँ

तुझको आएगी कब ये अकल साथिया

 

जिन्दगी की गजल नामुकम्मल रही

"अर्चना' इक अधूरी गजल, साथियाँ

 

 

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