मंगलवार, 13 अक्तूबर 2020

ग़ज़ल 005

 

1.        ग़ज़ल 005 : सावन की बूंदे

 

मेरे हाथ आई ये सावन की बूंदे

बड़ा मुस्कुराई ये सावन की बूंदे

 

छूने को इनको तरसता था ये मन

हमें गुदगुदाई ये सावन की बूंदे

 

हवाओं ने इनको उठाया गिराया

बड़ी चोट खाई ये सावन की बूंदे

 

कहीं बादलों ने छुपा कर रखा था

जिया में समाई ये सावन की बूंदे

 

जागी हुई थी ये मुद्दत से लेकिन

हथेली पर सोई ये सावन की बूंदे

 

दिल में दबा था दुखों का जो सागर

ना हमसे छुपाई ये सावन की बूंदे

 

डरी थी, ये बारिश में गुम हो न जाएँ

हिम्मत दिखाई ये सावन की बूंदे

 

मोहब्बत की खातिर गगन पर चढ़ी थी

रूठी तो छिटकी ये सावन की बूंदें

 

कभी भाप बनकर धरा से उठी थी

बिखर लौट आई यह सावन की बूंदे

 

 

 

 

 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें