ग़ज़ल 33: तुम्हें मन में बसाना –
1222----1222---1222—122
तुम्हें मन में बसाना चाहती हूँ
तुम्हें अपना बनाना चाहती हूँ
तड़पती हूँ बिना जल मीन जैसे
तुम्हारे पास आना चाहती हूँ
नहीं जीना मुझे मर मर के,
जानम !
तुम्हें सपनों में पाना चाहती हूँ
न बातें दिल की रह जाए अधूरी
मैं अपना ग़म सुनाना चाह्ती हूँ
तेरी तस्वीर सीने में बसी है
उसे जग से छुपाना चाहती हूँ
न तुमको है भरोसा अर्चना पर
यकीं मर कर दिखाना चाहती हूँ
सं 10-05-21
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