मंगलवार, 18 मई 2021

ग़ज़ल 030

 

ग़ज़ल 30: अकेले अकेले जिए जा रहे---

122—122---122---122

 

अकेले अकेले जिए जा रही हूँ

ख़ुशी हो कि ग़म, मै लिए जा रही हूँ

 

वो माना कि मुझ से ख़फ़ा चल रहा है

मगर फूल उसको दिए जा रही हूँ

 

कि जिसने दिया ग़म मुझे उम्र भर का

उसी से शिकायत किए जा रही हूँ

 

ज़माना हुआ वो गया कब का लेकिन

अभी तक मैं आँसू पिए जा रही हूँ

 

यूँ कहने को बातें बहुत है मगर

लबों को मैं अपने सिए जा रही हूँ

 

अगर हो न मंज़िल निगाहों की हद में

कहाँ मैं किधर किसलिए जा रही हूँ

 

सं 11-05-21

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