ग़ज़ल 40 : घर के आँगन में ---
घर के आंगन में तुलसी श्रृंगार
होती है
बेटी तो इस धरती का उपहार होती है
चंदन जैसी रहे महकती जहां कहीं वो जाए
संबंधों में धुरी बनी किरदार होती
है
उसकी परिधि में आ जाए जग के सारे काम
घर,
दफ्तर के बाहर भी दमदार होती है
प्रेम त्याग बलिदान चढ़ाकर करती जीवन अर्पण
इस समाज की सुदृढ़, सूत्रधार होती है
सौ तारों में एक चंद्र सी जगमग है उसकी छवि
हर उड़ान की यह गुड़िया हकदार होती
है
सागर से अंबर तक उसने अपने पंख
पसारे
इसके हाथों उन्नत यह पतवार होती है
नए क्षितिज की और प्रगत होती है
नारी अविरल
रीत प्रीत संग सजती बंदनवार होती है
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