ग़ज़ल 27 : सोचती हूँ गली छोड़ दूँ
212---212---212---212
ज़िन्दगी से हुए हम नहीं आशना
मुश्किलों से भला अब कहाँ भागना
सोचती हूँ गली छोड़ दूं आपकी
कर न पाऊँगी मैं आपका सामना
यह इरादा कभी मेरा पूरा न हो
मैं खुदा से यही कर रही कामना
जिंदगी तो सदा लड़खड़ाती रही
सीख लूंगी इसे एक दिन थामना
प्यार पाने की चाहत जिसे हो गई
नींद आती नहीं, रात भर जागना
“अर्चना” खुद में खुद को सदा
ढूँढती
पर अभी तक हुआ ही नहीं सामना
सं
03-05-21
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